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Saturday, November 13, 2010

नाटक आधारित फिल्में और फिल्म पर नाटक

शोभना देसाई के गुजराती नाटक ‘अंधलो पातो’ पर आधारित फिल्म ‘आंखें’ विपुल शाह ने बनाई थी और अब अपने ही गुजराती नाटक पर उन्होंने ‘एक्शन रीप्ले’ नामक हादसा रचा है। इससे पूर्व पीटर शेफर के महान नाटक ‘अमेडियस’ पर आधारित उनकी ‘लंदन ड्रीम्स’ अनेक लोगों के लिए वित्तीय दु:स्वप्न बनी।

आश्चर्य की बात यह है कि उनका ही एक बयान है कि फिल्म उद्योग में सफलता का प्रतिशत पंद्रह नहीं पचास माना जाना चाहिए, क्योंकि अधिकांश फिल्में उद्योग से अपरिचित नौसिखियों द्वारा गढ़ी जाती हैं और उनको खारिज करने पर सफलता का प्रतिशत बढ़ता है। विपुल शाह उन लोगों को भूल गए जो नौसिखिया नहीं हैं, फिर भी अनपढ़ों की तरह फिल्में बनाते हैं और इस सूची में वे अब शिखर स्थान पर पहुंच गए हैं।


बहरहाल नाटकों का फिल्मों से नजदीकी रिश्ता रहा है। धुंडिराज गोविंद फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को ही पहली फिल्म माना जाता है, जबकि उसके प्रदर्शन के पूर्व इसी नाटक के एक प्रदर्शन को जस का तस शूट करके दिखाया गया था और उसे फिल्म्ड प्ले होने के नाते पहली कथा फिल्म नहीं माना गया। गोयाकि प्रारंभ में ही स्पष्ट हो गया कि नाटक से प्रेरणा लेकर फिल्म बनाई जा सकती है, परंतु वह फिल्म होनी चाहिए, फिल्म्ड प्ले नहीं।

नाटक में बोले गए शब्द का बहुत महत्व है, जबकि सिनेमा की भाषा में दृश्य का महत्व है। नाटक में अनेक पात्र मंच पर होते हैं परंतु दर्शक किसी एक को कुछ समय के लिए केंद्रीय माने, ऐसी बाध्यता नहीं है। दूसरी ओर सिनेमा में क्लोज अप द्वारा दर्शक का ध्यान एक पात्र पर केंद्रित किया जा सकता है।

नाटक में दर्शक और पात्र का सीधा संवाद स्थापित होता है जबकि फिल्म में निर्देशक की इच्छा के विपरीत कोई भाव संप्रेषित नहीं हो सकता। हर माध्यम की अपनी शक्ति और सीमाएं होती हैं और सृजनशील लोग अपने माध्यम की सीमाओं का विस्तार करते हैं। मसलन गिरीश कर्नाड ने ‘हयवदन’ में मंच पर मौजूद कठपुतलियों की बातचीत के माध्यम से पात्रों के स्वप्न को अभिव्यक्ति दी।

कठपुतलियों की भूमिकाएं दो बालिकाओं ने निभाई थीं। आजकल रंगमंच पर टेक्नोलॉजी की मदद से अनेक प्रयोग हो रहे हैं। सिनेमा की सीमाओं का भी विस्तार हो रहा है। दर्शक की कल्पनाशक्ति और रस ग्रहण करने का माद्दा भी माध्यमों का सीमा विस्तार करता है।

अंग्रेजी भाषा में बनी अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘द लास्ट लीयर’ में रंगमंच और सिनेमा के द्वंद्व को लेकर फिल्म रची गई थी। रंगमंच के नशे में चूर नायक सिनेमा को उससे छोटा समझता है और फिल्म का निर्देशक सिनेमा के नशे में गाफिल है। दरअसल यह द्वंद्व दोनों के नशों का है, माध्यमों का नहीं।

मराठी भाषा में नाटकों पर अनेक फिल्में बनी हैं। 1971 में विजय तेंदुलकर के नाटक पर ‘शांतता! कोर्ट चालू आहे’ बनी थी। गिरीश कर्नाड ने संस्कृत के ‘चारुदत्त’ और ‘मृच्छकटिकम’ को मिलाकर शशि कपूर के लिए ‘उत्सव’ नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें लक्ष्मी-प्यारे ने अत्यंत मधुर संगीत दिया था। पश्चिम में ऑपेरा से प्रेरित ‘साउंड ऑफ म्यूजिक’ बनी थी, जिसे गुलजार ने हिंदी में ‘परिचय’ के नाम से बनाया था।

फिल्म ‘माय फेयर लेडी’ के आधार पर अमित खन्ना ने देवआनंद और टीना मुनीम को लेकर ‘मनपसंद’ बनाई थी, जिसमें राजेश रोशन ने अमित खन्ना के प्यारे गीतों की मधुर धुनें तैयारी की थीं। हरिकृष्ण प्रेमी के ‘रक्षा बंधन’ पर ‘चित्तौड़ विजय’ नामक फिल्म रची गई थी। शेक्सपीयर के नाटकों पर आधारित फिल्में सभी देशों में बार-बार बनाई गई हैं। यह सिलसिला हमेशा जारी रहेगा। हालांकि सफल फिल्मों के आधार पर नाटक नहीं रचे गए हैं, परंतु इस संभावना को निरस्त नहीं किया जा सकता(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,13.11.2010)।

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