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Wednesday, July 28, 2010

बेज़ुबान हो रही हैं टॉकीज

बेजुबान हो रही हैं टॉकीज। पान की पीक, फटी कुर्सियां और जालों में टंगी यादें। सन्नाटे के शोर में डूबी टॉकीज पर प्रवीण कुमार डोगरा की रिपोर्ट..

1500 सीटिंग कपैसिटी, 70 एमएम की स्क्रीन, 17 लोगों का स्टाफ । शो चल रहा है और एसी भी। मगर यहां फिल्म देखने बैठे हैं सिर्फ तीन लोग। जी हां, सिर्फ तीन। यही है कहानी शहर में खामोश होती टॉकीज की। एक्शन,रोमैंस और मारधाड़ की डोज के बीच बेदम हो रहे हैं सिंगल स्क्रीन थिएटर।

मालिक घाटे से परेशान हो सोच रहे हैं टॉकीज को मल्टीप्लेक्स, बैंक्वेट हॉल, फूड जोन या फिर मॉल में बदलने की । सालों से कोशिश कर रहे हैं बदलाव की मगर नहीं हो रहे हैं नक्शे पास। कब तक चलाते रहेंगे तीन लोगों के लिए शो?

नाम है भोला वर्मा। यूपी के सुल्तानपुरी के रहने वाले हैं और सेक्टर-32 में निर्माण सिनेमा के सामने चाय की दुकान लगाते हैं। पूछने पर बताते हैं ‘करीब 4 हजार कमा लेता हूं। पहले इसी निर्माण सिनेमा की कैंटीन में काम करता था और इससे ज्यादा कमाता था। यह बात 1995 की है और तब मैं टिकट ब्लैक कर लेता था क्योंकि यहां इतनी भीड़ होती थी कि पूछिए मत, संभालना मुश्किल होता था।

‘6 अगस्त 1993 को जब फिल्म खलनायक यहां रिलीज हुई थी तो भीड़ के सारे रिकॉर्ड टूटे थे और आज देख लो क्या हाल हो गया है। मुश्किल से 10 लोग भी एक फिल्म के लिए नहीं आते हैं।’ भोला सिंह का यह एक्सपीरियंस बयां करता है इन टॉकीज के खामोश होने की कहानी। जो सिर्फ निर्माण सिनेमा की कहानी नहीं बल्कि बत्रा, पंचकूला के सूरज और कुछ हद तक मोहाली के बस्सी सिनेमा की भी है।

तीन लोगों के लिए शो

करोड़ों की लागत से तैयार एक सिनेमा हॉल, जहां एक टाइम पर टिकटों के लिए मारामारी रहती थी, जहां टिकट ब्लैक में बेचकर कईयों के घर चलते थे, जहां करीब 50 लोगों का स्टाफ होता था और वह भी कम पड़ जाता था। जहां फिल्मों के प्रीमियर शो चलते थे और फिल्म स्टार्स इनमें शिरकत करते थे। टॉकीज के चारों ओर लोगों का मेला लगता था। मगर वहीं आज एक शो के लिए कभी-कभी तीन लोग ही पहुंचते हैं, स्टाफ घट कर 17 रह गया है और मालिक यह कहता है कि इसे और कम करो।

ब्लैक टिकट करके अपना घर चलाने वाले अब दूसरे ऑप्शन तलाश चुके हैं। इस दौर से गुजर रहे हैं ट्राईसिटी के टॉकीज। पंचकूला के सूरज सिनेमा में मैनेजर रामपाल शर्मा कहते हैं,‘ हम तो कभी-कभी एक बंदे के लिए भी शो चला देते हैं, मालिक ने सख्त हिदायत दी है कि कभी भी थियेटर बंद नहीं होना चाहिए। वहीं निर्माण सिनेमा के मैनेजर एमएल वर्मा ने अपना रजिस्टर खोलकर दिखाते हुए बताया कि महीने में कई बार सिर्फ एक या दो लोगों के आने से शो बंद करना पड़ा।

आमदनी अठ्ठनी, खर्चा दस रुपैया

ट्राईसिटी में चल रहे इन टॉकीज की खामोशी का सबसे बड़ा कारण है इनकी कम आमदनी और बढ़ते खर्चे। जानकारों की मानें तो एक शो चलाने में करीब 700 रूपए की कॉस्ट आती है और इन टॉकीज में कभी-कभी तो दो लोगों के लिए भी शो चलता है। यानी दो लोगों को सर्विस दे रहे हैं 17 कर्मचारी और करोड़ों का यह सेटअप। मान लीजिए अगर दोनों लोगों ने बालकनी का टिकट भी लिया तो 150 रूपए ही बनते हैं।

निर्माण सिनेमा के मैनेजर एम.एल. वर्मा कहते हैं कि एक शो चलाने में दो पेयर तो कार्बन ही लग जाता है, जिसकी कीमत 50 रूपए पड़ती है, ऊपर से इलैक्ट्रिसिटी और पानी का खर्च। वर्मा कहते हैं कि इस थियेटर को चलाने के लिए हर महीने खर्च आता है करीब 1.70 लाख रूपए, जितना पूरा महीना यह थियेटर कमाकर नहीं देता है। हर महीने मालिक से बिजली, पानी और सैलरी के लिए पैसा लेना पड़ता है। मालिक भी कब तक उठाएंगे इस बोझ को। ऐसा ही चलता रहा तो बंद हो जाएगा यह भी, जैसे पिकाडली सिनेमा हो गया।

मल्टीप्लेक्स की मार

सिनेमा देखने वालों में कोई कमी नहीं आई है और न ही वे बढ़े हैं। बढ़े हैं तो सिर्फ मल्टीप्लेक्स। ये कहना है सेक्टर-37 के बत्रा सिनेमा के मैनेजर विनय गंभीर का। करीब 30 साल से मैनेजर गंभीर का कहना है कि जो इन दिनों मल्टीप्लेक्स खुले है उनकी सीटिंग कपैसिटी है 150-200 की, यानी इस लिहाज से बत्रा सिनेमा में करीब 10 मल्टीप्लेक्स की कपैसिटी है। अब ये चार से पांच परदे लगाकर अलग-अलग फिल्में चलाते हैं और इस तरह 150 की कपैसिटी वाला हर शो लगभग हाउसफुल दिखाते हैं।

थियेटर अगर आज इस कंडीशन से गुजर रहे हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण है इनका बड़ा सेटअप जो आज के फिल्म दर्शकों के हिसाब से कई गुना बड़ा है। दूसरा फिल्में भी उस स्तर की नहीं आ रही हैं कि लोगों को इतने बड़े लेवल पर खींच सकें। यह पूछने पर कि इस सिनेमा में सबसे हिट फिल्म कौन सी रही थी, गंभीर कोने में रखी उस पुरानी ट्रॉफी की तरफ इशारा करते हैं। यह ट्रॉफी फिल्म कहो न प्यार है, के लिए सन २क्क्क् में मिली थी जो करीब 25 हफ्ते रेकॉर्ड तोड़ चली थी।

सी-ग्रेड ही है एक उपाय

सूरज सिनेमा के मालिक विपिन कुमार जैन से इन टॉकीज के रिवाइवल का सॉल्यूशन पूछने पर वे कहते हैं, ‘कोई सॉल्यूशन नहीं है। या तो आप सी-ग्रेड फिल्में चला कर और टिकट का दाम 20 या 30 रूपए करके काम चलाते रहिए या फिर ऐसा नहीं करना है तो अपनी जेब से टॉकीज के खर्चो का बोझ उठाते रहिए।’

इसी तरह से चल रहा है मोहाली का बस्सी सिनेमा भी जिसकी बिल्डिंग लोगों के लिए यूं तो रैनबसेरा बनी हुई है मगर त्रिनेत्र, दाग और सात सहेलियां जैसी फिल्मों के दम पर कुछ तो कमा ही लेता है। बस्सी सिनेमा के पास ही रहने वाले किशोर का कहना है कि अकसर यहां ऐसी ही फिल्में लगती हैं और दूसरे टॉकीज के मुकाबले भीड़ भी यहां जुटती है। अगर किसी फिल्म के पोस्टर में कोई सेक्सी सीन या कम कपड़ों में कोई लड़की दिखा दी तो स्कूल और कॉलेज से लड़के बंक मार कर देखते हैं। कॉलेज स्टोरी, डाकू रानी, अंधेरी रात में दिया तेरे हाथ में, कुंवारी विधवा ऐसी ही कुछ फिल्मों के नाम हैं जो इन टॉकीज की आमदनी का जरिया बन रही हैं।

इसे एंटरटेनमेंट प्रोवाइड करने के मकसद से तैयार किया था, मगर समय बदल गया और इसे भी बदलने की जरूरत है। सरकार को इसे मल्टीप्लेक्स या फिर मॉल बनाने की प्रोसेस में पेचीदगियों को कम करना होगा।

नरेश बत्रा, मालिक, बत्रा सिनेमा

परसों तीन लोगों के लिए शो चलाया और ऊपर से उनकी एसी चलाने की डिमांड। क्या करते, चलाना पड़ा। वो दौर भी देखा है जब आख्रिरी रास्ता और शहनशाह जैसी फिल्मों की भीड़ थी और आज सैलरी देना मुश्किल हो रहा है।

एम एल वर्मा, मैनेजर, निर्माण सिनेमा(दैनिक भास्कर,चंडीगढ़,25.7.2010)

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