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Friday, June 11, 2010

कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी:भावना सोमाया

मुझे आज भी शायर कैफी आजमी से वह पहली भेंट याद है। वे अपने घर ‘जानकी कुटीर’ में बेंत की कुर्सी पर बैठे थे। शबाना आजमी ने मेरा परिचय देते हुए उनसे कहा, ‘अब्बा, ये हमारी अच्छी दोस्त हैं..।’ अब्बा ने धीमे से जवाब दिया, ‘दोस्त हैं तो जाहिर है अच्छी ही होंगी।’ उनकी सुपरिचित हाजिरजवाबी से यह मेरा पहला परिचय था।

बीते माह कैफी आजमी को गुजरे आठ साल हो गए। फादर्स डे के मौके पर अब्बा की याद आना लाजिमी ही है। आजमी परिवार से नजदीकी के चलते मुझे उनकी कद्दावर शख्सियत और विलक्षण बुद्धिमत्ता को गौर से देखने का मौका मिला था। उनके घर अक्सर होने वाली ‘महफिलों’ की भी मैं गवाह रही हूं। मैंने लोगों पर उनकी शायरी का जादू चलते देखा है। एक शाम मैंने उनसे पूछा, ऐसा कौन सा अहसास था, जिसने आपको हंसते जख्म फिल्म का वह गमगीन नगमा ‘दिल की नाजुक रगें टूटती हैं, याद इतना भी कोई ना आए..’ लिखने के लिए मजबूर कर दिया। वे देर तक खाली आंखों से मेरी तरफ देखते रहे और फिर दूसरी तरफ नजरें घुमा लीं। उन्हें अपनी शख्सियत के परदे में रहना पसंद था।

मेरे जेहन में अब्बा (मैं उन्हें इसी नाम से पुकारने लगी थी) से जुड़ी जाने कितनी ही यादें हैं। चाहे वह चाय और खारी बिस्किट के साथ चुपचाप कोई मर्डर मिस्ट्री फिल्म देखना हो या सर्जरी के बाद उनसे बॉम्बे हॉस्पिटल मिलने जाना हो। उम्र बढ़ने के साथ ही अब्बा का अस्पतालों से नाता भी बढ़ता रहा। डॉक्टर बदल जाते, फ्लोर बदल जाते, कमरे बदल जाते, लेकिन मरीज वही रहता। जिंदगी के आखिरी दिनों में वे काफी कमजोर हो चले थे। उन्हें दवाइयों के आसरे पर जीना अच्छा नहीं लगता था, लेकिन उन्होंने कभी अपनी तकलीफ जाहिर नहीं होने दी।

आखिरी वक्त में तो ऐसा भी लगा, जैसे उनका अपनी शायरी तक से मोह जाता रहा हो। जब शबाना वॉकमैन में उनके पुराने गीत बजातीं तो उनके चेहरे पर किसी तरह के भाव नहीं आते थे। लेकिन उनके गांव फूलपुर के विकास की कोई खबर आने पर उनकी दिलचस्पी जाग जाती। उनकी चिंताएं हमेशा व्यापक जनसमुदाय के प्रति थीं, खुद के लिए नहीं।

जिस रोज वे गुजरे, वह बहुत गर्म शाम थी। और लग रहा था, वह रात तो जैसे कभी खत्म ही न होगी। मुझे उनकी नज्म मकान की ये पंक्तियां बेतरह याद आती रहीं- ‘आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है/आज की रात ना फुटपाथ पे नींद आएगी/सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो/कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी..’। लेकिन उस रात ऐसी कोई खिड़की नहीं खुली, जो हमें हौसला दे पाती। दुख बर्दाश्त से बाहर था। शाम डूबने के साथ ही घर पर उदासी भी गहरा गई।

अब्बा के इंतकाल के बाद संगीतकार जतिन-ललित ने संगीत के जरिए उन्हें शोकांजलि अर्पित की थी। सबसे पहले जतिन ने अब्बा के यादगार नगमों को गुनगुनाना शुरू किया और फिर ललित, जावेद अख्तर, नीलम शुक्ला, पार्वती खान इत्यादि भी उनका साथ देने लगे। वह अब्बा की जादुई शायरी से सजी यादगार शाम थी। चाहे वह उनका मार्मिक गीत ‘वक्त ने किया क्या हसीं सितम हो’ या गम में डूबा हुआ नगमा ‘जाने क्या ढूंढती रहती है ये आंखें मुझमें’।

चाहे वह उम्मीद की गर्मजोशी लिए ‘जरा सी आहट होती है तो दिल सोचता है’ हो या प्रेरणा जगाने वाला ‘इतने बाजू इतने सिर, सुन ले दुश्मन ध्यान से’। जिंदगी के हर लम्हे, हर अहसास पर अब्बा ने नगमे लिखे थे। अचानक हमारे दिलों में छाई उदासी कहीं खो गई। हम उम्मीदों से भर गए। हमें महसूस हुआ कि अब्बा कहीं नहीं गए हैं, क्योंकि उनके नगमों की फसल अब भी लहलहा रही थी। वे यहीं थे, हम सभी के बीच, हमेशा की तरह(Rajasthan Patrika,6 june,2010)।

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