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Monday, May 24, 2010

वह पचास हज़ारी वन लाइनर

मोहन माखीजानी अर्थात् मैकमोहन की पहली फिल्म हकीकत 1964 में रिलीज हुई थी और शोले आई थी 1975 में। इन ग्यारह वर्षों में उन्होंने कुल 25 फिल्मों में काम किया। आवाज़,कद-काठी,स्टाइल-किसी भी एंगल से उनका करिअर आश्वस्त नहीं करता था। खलनायक के तौर पर तो कतई नहीं। मगर बाद के पैंतीस वर्षों में उन्हें 175 फिल्में मिलीं और इनमें से अधिकतर में वे खलनायक थे ।यह संभव हुआ था शोले से। गब्बर पूछता है, "अरे ओ सांभा, कितना इनाम रखा है सरकार हम पर"? और सांभा बने मैकमोहन जवाब देते हैं, "पूरे पचास हजार।" पूरी फिल्म में बस एक डायलॉग। शोले से पहले उनके खाते में आया सावन झूम के,अभिनेत्री,हंसते ज़ख्म,हीरा-पन्ना,जंजीर और मज़बूर जैसी हिट फिल्में शामिल थीं। मगर, मैकमोहन के करियर को मानो इस वन लाइनर का ही इंतज़ार था । ऐसा कोई उदाहरण बिरले ही मिले जब किसी एक डायलॉग के बूते ही किसी कलाकार का करियर इतना लंबा खिंचा हो। संवाद लेखन की विधा को सलीम-जावेद ने जिस ऊंचाई पर पहुंचाया था,वह हिंदी फिल्मों के इतिहास में एक मिसाल है। उनके हिस्से में और भी नगीने हैं मगर मैकमोहन का पूरा करियर इस पचास हजारी डायलॉग का पर्याय बन गया। 22 मई के राजस्थान पत्रिका में,प्रदीप सरदाना जी ने उन्हें याद किया हैः
"ऑल टाइम हिट और एवरग्रीन फिल्म 'शोले' का लगभग हर किरदार लोगों को आज भी याद है। इन्हीं में एक किरदार है सांभा का, जिसे परदे पर मैक मोहन ने प्ले किया था। 10 मई को मैक इस दुनिया से कूच कर गए, हमेशा के लिए हमारी यादों का हिस्सा बन गए।
मैक मोहन के निधन के साथ बॉलीवुड से एक ऎसे शख्स की विदाई हो गई, जो फिल्मों में ज्यादातर 'बैड मैन' के रोल करता था, पर असल जिंदगी में एक जेंटलमैन था। एक ऎसा इंसान, जिसके दोस्त दूर-दूर तक थे, पर दुश्मन ढूंढे से भी नहीं मिलता था। उन्होंने अपनी जिंदगी पूरे स्टाइल से जी, पर स्टाइलिश लाइफ में भी उनकी सादगी और शराफत देखते ही बनती थी। मैक ने 200 से ज्यादा हिंदी फिल्मों में काम किया, जिनमें बडे रोल भी थे और छोटे भी। पर मैक को जिस रोल से सबसे ज्यादा लोकप्रियता और पहचान मिली वह 'शोले' में सांभा का रोल था। लाहौर में 24 अप्रेल 1938 को जन्मे मोहन मखीजानी (मैक का असली नाम) देश विभाजन के बाद लखनऊ आ गए। पढाई के साथ क्रिकेट का भी उन्हें बहुत शौक था। बीए ऑनर्स की पढाई के बाद क्रिकेटर बनने का सपना लेकर वे साठ के दशक में मुंबई आ गए। पर क्रिकेटर बनने की बजाय वे थिएटर पहंुच गए, जहां एक्टर बनने की तमन्ना जाग उठी। शुरू में वे इप्टा से जुडे, फिर फिल्मालय एक्टिंग स्कूल से एक्टिंग भी सीखी। बाद में वे चेतन आनंद के सहायक बन गए। 1964 में चेतन आनंद ने ही अपनी फिल्म 'हकीकत' में मैक को एक रोल दिया। हिंदी के अलावा मैक ने पंजाबी, हरियाणवी, बांग्ला और दक्षिण की फिल्मों में भी काम किया। दिलचस्प बात यह है कि फिल्मों में उनकी शुरूआत बृजमोहन नाम से हुई। पर उनके दोस्त उन्हें मोहन मखीजानी की जगह मैक या मैकी कहकर बुलाते थे। इसीलिए इंडस्ट्री में वे मैक के रूप में मशहूर हो गए। कुछ फिल्में उन्होंने मैक नाम से की और 1973 में आई 'शरीफ बदमाश' से उनका फिल्मी नाम मैक मोहन हो गया। बाद में उन्होंने 'हंसते जख्म', 'हीरा पन्ना', 'प्रेम कहानी', 'अनहोनी', 'हिमालय से ऊंचा', 'मनोरंजन', 'रफू चक्कर', 'विश्वनाथ', 'छैला बाबू', 'जॉनी दुश्मन', 'लहू के दो रंग', 'कर्ज', 'कुर्बानी', 'धरमकांटा', 'हादसा' और 'नाखुदा' जैसी कई फिल्मों में छोटे-मोटे रोल किए। यह एक संयोग ही है कि उनकी सबसे ज्यादा फिल्में अमिताभ बच्चन के साथ रहीं। अमिताभ की पहली हिट फिल्म 'जंजीर' से दोनों का साथ ऎसा बना, जो 'मजबूर', 'कसौटी', 'महान', 'सत्ते पे सत्ता', 'काला पत्थर', 'हेरा फेरी', 'खून पसीना', 'ईमान-धर्म', 'डॉन', 'दोस्ताना', 'शान', 'अजूबा' और 'लाल बादशाह' जैसी कई फिल्मों तक चलता रहा।
एक वक्त था, जब मैक मोहन इतने बिजी थे कि दो-दो शिफ्ट में काम करते थे। पर बाद में काम काफी कम हो गया। इस बीच में उन्होंने कुछ सीरियल भी किए, जिनमें 'झरोखा', 'ग्राहक दोस्त', 'कृष्णा अर्जुन' और 'कोई है' शामिल हैं। हाल के और में वे 'उलझन', 'सोच', 'स्टम्प्ड', 'इंसान' और 'जर्नी बॉम्बे टू गोवा' जैसी फिल्मों में नजर आए थे। उनकी आखिरी फिल्म जोया अख्तर की 'लक बाई चांस' थी। उन्हें हालिया रिलीज फिल्म 'अतिथि तुम कब जाओगे' के लिए साइन किया गया था, पर उन्हीं दिनों उनकी तबीयत खराब हो गई। उन्हें कोकिला बेन अस्पताल ले जाया गया, जहां उनके फेफडे में कैंसर का पता लगा। पिछले एक साल से वे अस्पताल के चक्कर लगाते रहे। 10 मई को थककर उन्होंने अस्पताल में दम तोड दिया।"
(ऊपर के चित्र में-मैकमोहन की बेटी अंतिम संस्कार के समय। बीबीसी डॉट कॉम से साभार)

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