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Thursday, April 1, 2010

"आइकन" अमिताभ की मुश्किलें- सुधीश पचौरी

अमिताभ गैर-फिल्मी कारणों से लाइमलाइट में हैं। उनके गुजरात का ब्रांड एंबेसडर बनने को लेकर विवाद थमा भी नहीं था कि मराठी साहित्य सम्मेलन में उनके काव्य-पाठ पर बवाल खड़ा कर दिया । आज नई दुनिया में,सुधीश पचौरी जी उन मुद्दों की पड़ताल कर रहे हैं जिन्होंने अमिताभ को आइकन बनाया और जो उनके आइकन बने रहने के लिए ज़रूरी हैं। लिखते हैं-
"अमिताभ चर्चा में हैं। पहले वे फिल्मों में "एंग्री यंगमैन" की जबर्दस्त भूमिकाओं के कारण उत्तर नेहरू युग की जनता के बीच लोकप्रिय बने थे। फिर वे "मित्रधर्म" निभाने के लिए राजनीति में प्रविष्ट हुए और एक "दर्द" लेकर बाहर हुए। उत्तर-राजीव दौर में "मित्रपरिवार" से दूर होते गए और लोहिया की गैर-कांग्रेसवादी राजनीति के उत्तर युगवाली समाजवादी पार्टी के नजदीक हो गए और अमर-मुलायम की "भैया-दद्दू" जोड़ी के एक महत्वपूर्ण हिस्से बन गए। उन्हें मुलायम-अमर का राजनीतिक कवच मिला। कांग्रेस की छिटपुट निशानेबाजी का मुकाबला करने वाले जवाबी निशानेबाज मिले। इस दौर में वे "बिग बी" बने। सदी के "महानायक" बने। "बने" का मतलब "बनाए गए"। "बनाए गए" का मतलब है कि कुछ वे अपनी प्रतिभा से बने और कुछ मनोरंजन उद्योग की पिछली सदी की सकल-पारिस्थितिकी से बने। इस सदी के पिछले दस साल में वे कई ब्रांडों के "दूत" बने। करोड़पति कार्यक्रम के अभूतपूर्व संयोजक बने। टीवी ने उन्हें सुपर हीरो से "आइकन" में बदल डाला।

ये दुष्ट-दिन हैं। "एंग्री यंगमैन" की जगह "देव डी", "ओए लकी ओए" और "कमीने" आ गए हैं। ऐसे बेमुरव्वत दिनों में अगर अमिताभ "एंग्री ओल्डमैन" बनते हैं तो उनके क्रोध से हास्य उत्पन्न होता है। कवि सम्मेलनों तक में अब हरिवंश राय बच्चन के पुराने क्षुब्ध स्वर हिट नहीं करते। हर "आइकन" देवमूर्ति होकर हमारे लिए आनंद-मंगल का चिह्न बनकर हमारी भाषा, अभिव्यक्ति में आ जाता है। उसके हिताहित हमारे हित से संबद्ध नजर आते हैं । उसकी हानि हम बर्दाश्त नहीं कर पाते। हम उसके विकट पक्षधर, "फैन", अकुंठ प्रशंसक बन उठते हैं । वह हमारे सुख का, भले वह क्षणिक तोष से ज्यादा कुछ न हो, साधन होता है । "आइकन" की समस्या यह होती है कि वह जिस वस्तु को पेश करता उससे अलग नहीं रह पाता। वह खुद वस्तु बन जाता है। जब "आइकन" अपने चोले को बदलता है तो वह तड़क जाता है।

इन दिनों इस "आइकन" और उसके भीतर बैठे व्यक्ति का अंतर्द्वंद्व अपने चरम पर है। "एक रूप"; आइकन को अलगाकर, "दूसरे रूप"; व्यक्ति को अलहदा भूमिका देने की हड़बड़ी अमिताभ में उसी तरह देखी जा सकती है कि जिस तरह इन दिनों पश्चिमी आइकन टाइगर वुड्स के प्रसंग में देखी जा रही है । टाइगर और अमिताभ की कहानी एक नहीं है लेकिन दोनों आइकनों की "सार्वजनिकता" और "निजता" के बीच बार-बार का बनता-बिगड़ता तनाव और उसका विलोपन लगभग एक जैसा अनुभव है, जिसे विखंडित किया जाना चाहिए।

पिछले दो-तीन बरसों में अमिताभ ने अपने "आइकन" की सीमाएं कई बार लांघी हैं। वे "आइकन" को पीछे कर अपने व्यक्तित्व में वापस होने की जद्दोजहद करते हुए दिखे हैं। पहली बार तब दिखे थे जब पुत्र अभिषेक की ऐश्वर्या के साथ शादी को निजी घटना की तरह बनाया। इसका चरमोत्कर्ष तब बना, जब वे तिरुपति मंदिर गए और उसकी फुटेज टीवी की खबरों में विवाद का विषय बनी। तब एक व्यापार वाणिज्य विशेषज्ञ ने टिप्पणी की थी कि अमिताभ को एक सुपर ब्रांड होने के नाते किसी मंदिर विशेष में कैमरे के साथ नहीं जाना चाहिए था । अमिताभ का अपनी "प्रतिमा" तत्व से बाहर आने की दूसरी बड़ी कोशिश उनका ब्लॉग बनाना रही। ब्लॉग लिख- लिख कर उन्होंने कई मसलों पर अपना पक्ष स्पष्ट करने की कोशिश की। ब्लॅाग उन्हें "अपना" स्पेस देता है। अपनी रक्षा की आजादी देता है लेकिन इस क्रम में वे ब्लॉगवादियों की "खुला खेल फर्रुखाबादी" बिरादरी की बराबरी में ही खड़े हो सकते थे । इस तरह उनका प्रतिमात्व या श्रद्धास्पदत्व कमतर होता था और एक ऐसी "फ्री फॉर ऑल" दुनिया से उनका सामना होता था जिसमें उनका प्रतिमात्व शीशे की किसी प्रतिमा की तरह "नाजुक" हो उठता था। वे मामूली आदमी के रूप में बाध्य होते थे। "आइकन" की अपनी निजता में लौटने का यही दंड हो सकता है। अपने "आइकन" की सीमा का तीसरा अतिक्रमण अमिताभ ने तब किया, जब वे "यूपी में है दम" वाले सपा सरकार के खराब से राजनीतिक विज्ञापन के विवादास्पद दूत बने । चौथा अतिक्रमण कमाल का "अबाउट टर्न" है। वे गुजरात के ब्रांड एंबेसडर बने हैं। यह शायद "आइकन" के रहे असर का जादू रहा कि जब अमिताभ ने मोदी के गुजरात के ब्रांड एंबेसडर बनने की स्वीकृति दी तो न तो सपा से कोई सेकूलर कराह उठी, न वाम सेकूलरों ने कोई आलोचना की। कांग्रेस भी तब चुप रही। इस शून्य में राज ठाकरे की मराठी मानुषवादी ने उनकी प्रतिमा को विवाद में इस तरह से घसीटा कि वह "आइकन" अरक्षित और अकेला हो उठा। गुजरात का ब्रांड एंबेसडर बनने के पीछे शायद यह अकेलापन रहा हो और वे अपने आखेटकों की शरण में महफूज महसूस करते हों। उन्हें लगा होगा कि निष्ठुर सत्तामूलक विमर्शों में अगर वे किसी एक विमर्श के संरक्षण में न होंगे तो उनके आइकनत्व की रक्षा जनता का उपभोक्तावादी प्यार नहीं कर सकता। अपनी जनता से उनके भरोसे का उठना अपने प्रति भरोसे का उठना लगता है।

इसके बाद घटनाक्रम ताबड़तोड़ है। सी-लिंक पुल उद्घाटन में अमिताभ का आना, कांग्रेस के मुख्यमंत्री का परेशान होना, फिर मराठी साहित्य सम्मेलन में अमिताभ का आना और मुख्यमंत्री का अमिताभ के साथ मंच पर बैठने से बचने के लिए एक दिन ही पहले आकर चले जाना और बाद में अमिताभ का उसी मंच से सत्ता पर कटाक्ष करने वाली कविताओं के पाठ को देख लगता है कि अब अमिताभ "दीवार" के उसी डायलॉग में लौट गए हैं जिसके एंग्री-यंग हीरो के रूप में वे कहते हैं कि "पीटर अब तेरी जेब से ही चाबी निकालकर ये दरवाजा खोलूंगा"।

अपने क्षोभ में यह आइकन नहीं समझ पा रहा कि "एंग्री यंगमैन" का युग बीत चुका है और कि "आइकन" अपने लिए क्षोभ नहीं किया करते क्योंकि वे दूसरों द्वारा "स्क्रिप्टेड" होते हैं। यह स्थिति दिलचस्प है। भाजपा के प्रवक्ता उन कविताओं के तुरंत राजनीतिक अर्थ निकालकर कांग्रेस के खिलाफ सक्रिय हो रहे हैं। कांग्रेस ने आखिर में इस आइकन से पूछ ही लिया है कि वे गुजरात दंगों के बारे में अपना रुख़ साफ करें। यह सवाल "आइकन" को तड़काने के लिए काफी है। कोई पूछ सकता है कि अगर अमिताभ सिर्फ गुजरात पर्यटन के  एंबेसडर हैं तो क्या उनके अभियान के नक्शे में "गोधरा" और "नरोदा पटिया" के वह जले मकान हैं कि नहीं जिन्होंने गुजरात को एक "साम्प्रदायिक" राज्य की पहचान ती है!"

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