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Monday, March 22, 2010

रूह को सुकून देता है लोक संगीतःरेखा भारद्वाज

आज के दौर में किसी भी क्षेत्र में पहचान बनाना आसान नहीं है। इसके लिए सतत प्रयास और लगन की जरूरत होती है। लगातार प्रयास और धैर्य के साथ मंजिल की ओर बढ़ना... इसे गायिका रेखा भारद्वाज आवश्यक मानती हैं। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत बतौर प्लेबैक सिंगर वर्ष १९९६ में फिल्म "चाची-४२०" से की थी पर उन्हें करीब दस साल के लंबे इंतजार के बाद वर्ष २००६ में फिल्म "ओमकारा" के गीत "नमक इश्क का..." से पहचान मिली। रेखा मानती हैं कि समय से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिल सकता है। आइए इस सप्ताह के रूबरू में गायिका रेखा भारद्वाज के संगीतमय सफर से मुखातिब होते हैं...

गायिका रेखा भारद्वाज कहती हैं कि मैंने दिल्ली के गांधर्व महाविद्यालय में पंडित विनयचंद्र मौदगल्य और पंडित मधुप मुद्गल से गायन सीखा। पंडित अमरनाथ जी की वजह से संगीत की बारीकियों से परिचित हुई। इन दिनों अमरजीत जी से मार्गदर्शन ले रही हूं, क्योंकि अमरजीत जी विदेश में ज्यादा रहती हैं इसलिए उनसे गर्मी की छुट्टियों में ही मुलाकात हो पाती है। दरअसल, अगर आप संगीत को सिर्फ प्रोफेशन न मानकर इबादत और पूजा की तरह अपनाते हैं तो आपकी रूह आपको रास्ता दिखाती है। वह मानती हैं कि यह सफर अकेले तय नहीं किया जा सकता। इसमें लोगों के सहयोग और समर्थन की जरूरत पड़ती है। रेखा भारद्वाज बताती हैं कि जब मेरी अलबम "इश्का-इश्का" आई थी तब गीतकार गुलजार साहब ने कहा था कि अब मैं ऑरबिट में आ गई हूं। इसके बाद कई वर्षों तक काम करती रही पर वो बात नहीं आई जिसकी मुझे जरूरत थी। इसी दौरान फिल्म "ओमकारा" आई और इसका गाना "नमक इश्क का..." हिट हुआ। मुझे याद है कि तब गुलजार साहब ने कहा था कि अब समय तुम्हारा है। रेखा कहती हैं कि मेरे पति संगीतकार और निर्देशक विशाल भारद्वाज ने मुझे कई फिल्मों में गाने का मौका दिया। वह मेरे हिसाब से म्यूजिक का स्केल रखते हैं। विशाल को वैसे तो मैं शादी के पहले से जानती थी पर उन्होंने मुझे बतौर इंसान और कलाकार बेहतर समझा। वह गुलजार जी को अपना गुरु मानते हैं। उनके आपसी संबंधों में बाप-बेटे, गुरु-शिष्य और प्रोफेशनल लेवल पर भी समझदारी दिखती है। अपने करियर के शुरुआती दिनों को याद करते हुए रेखा बताती हैं कि मुझे अस्सी के दशक में महान रंगकर्मी हबीब तनवीर जी के साथ काम करने का मौका मिला। उनके साथ "आगरा बाजार" नाटक में मैंने काम किया था। उस नाटक में गजल और छत्तीसगढ़ी लोक संगीत का ब्लेंड था। मुझे तवायफ की गायकी को बिना माइक के गाना था। उस पल को मैं कभी भूल नहीं पाती। वाकई, जिंदगी में आप जितना सीखते हैं, उतना आगे बढ़ते हैं। दरअसल, जिंदगी तो सीखने का दूसरा नाम है। रेखा लोक संगीत और सूफी दोनों ही तरह के संगीत से जुड़ी हुई हैं। फिल्मों में भी उन्होंने जो गीत गाएं हैं वे फोक बेस्ड हैं। इस बारे में रेखा भारद्वाज कहती हैं कि मुझे लगता है कि दुनिया के हर संगीत का जन्म लोक संगीत से हुआ है। सूफी संगीत भी लोक संगीत का हिस्सा है। "लोक संगीत" हर संगीत की जननी है। लोक संगीत आपको जीवन के रस से जोड़ता है। इसमें एक नरमाहट और अपनेपन का अहसास पलता है। जैसे मां-बाप से आप जुदा होकर नहीं रह सकते, वैसे ही लोक संगीत या सूफी संगीत की रूहानियत को नहीं भूल सकते। यह संगीत दिल को सुकून देने वाला है। यह संगीत उस समय का है जब ट्रेवलिंग की सुविधा नहीं थी। घोड़े या ऊंट की सवारी से आने-जाने में बहुत वक्त लगता था। महिलाएं घर पर अकेली होती थीं। स्त्री-पुरुष दोनों में एक दूरी थी जिसमें विरह पलता था और खूबसूरत लोक गीत बन जाते थे। भावों की उस अदायगी में विरह और उल्लास की उम्मीद पलती थी जिसे आज हमने लोक संगीत का नाम दे दिया है। सच लोक संगीत विरह का पर्याय है। यह मासूमियत, सादगी, सरलता और अकेलेपन की एकरसता में रस का फव्वारा है। मैंने हरियाणवी, छत्तीसगढ़ी, पंजाबी आदि भाषाओं में गाने गाए हैं जो लोक संगीत की देन हैं। युवा कलाकारों को संदेश देते हुए रेखा भारद्वाज कहती हैं कि कोई भी कलाकार रातों-रात मशहूर नहीं होता। उसे सही समय आने की धैर्य से प्रतीक्षा करनी चाहिए।
(शशिप्रभा तिवारी,नई दुनिया,दिल्ली,22.3.2010)

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