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Wednesday, February 24, 2010

अपने-अपने कुनबे की हिफाजत में उलझता कॉपीराइट मामला

(चित्र अभिव्यक्ति डॉट कॉम से साभार)
कॉपीराइट को लेकर केंद्रीय स्तर पर कुछ चल रहा है,इसकी ओर पहली बार गंभीर ध्यानाकर्षण आमिर के इस्तीफे के कारण हुआ था। उसके बाद से,गीतकारों और अभिनेताओं की लॉबी गाने की लोकप्रियता के कारण को अपने-अपने नजरिए से देखे जाने की वकालत करती रही है। इसी सिलसिले में,मध्यमार्ग सुझाता कंप्यूटर तकनीक विशेषज्ञ और स्वतंत्र टिप्पणीकार बालेंदु दाधीच जी का यह आलेख देखिए जो आज के दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण में विवादों का गीत शीर्षक से प्रकाशित हुआ हैः
हितों का टकराव पिछले दिनों आमिर खान और जावेद अख्तर में कापीराइट समिति की बैठक में हुई तकरार से गीत की सफलता में सर्वाधिक योगदान पर अप्रिय और बेवजह का विवाद खड़ा हो गया है। भले ही आमिर खान ने कापीराइट पैनल से इस्तीफा वापस ले लिया है, मगर बहस अपनी जगह कायम है। इस विवाद ने जावेद अख्तर के पक्ष में सहानुभूति की लहर पैदा की है और जिसे देखिए वही गीतकारों के साथ नाइंसाफी पर अफसोस में गमजदा दिखाई देता है। अलबत्ता, ऐसे विवादों पर भावुकता के बजाए व्यवहारिकता और औचित्य के आधार पर विचार करना चाहिए। जावेद अख्तर का यह कहना कि पापा कहते हैं. गाना अभिनेता के रूप में आमिर खान के योगदान की वजह से हिट नहीं हुआ, एकदम तर्कसंगत है। वह आमिर की पहली फिल्म थी और प्रशंसकों के बीच तब तक उनकी ऐसी हैसियत नहीं थी कि वह किसी फिल्म या किसी गाने को अपने दम पर हिट करवा लें। दूसरी ओर जब हम दिल का हाल सुने दिलवाला. या याहू! चाहे कोई मुझे जंगली कहे. जैसे गाने सुनते हैं तो अपने मस्तिष्क पर उभरती राजकपूर और शम्मी कपूर की सदाबहार तस्वीरों को मन से मिटा नहीं पाते। ऐसे गानों की सफलता में किसका हाथ माना जाए? निर्माता-निर्देशक, अभिनेता-अभिनेत्रियों का या गीतकार का? जावेद साहब कृपया क्षमा करें, हमारे फिल्मोद्योग में एक तरफ जहां तकनीक, सिनेमेटोग्राफी, संगीत, ग्राफिक्स आदि क्षेत्रों में जबरदस्त तरक्की हुई है, वहीं लेखन के क्षेत्र में गिरावट आई है। गुलजार, जावेद अख्तर और प्रसून जोशी जैसे उत्कृष्ट गीतकारों की संख्या कितनी है? दूसरी ओर ऐसे गीतकारों और लेखकों की भरमार है जो पलक झपकते ही जिस सिचुएशन के लिए चाहें गीत लिखकर देने को तैयार हैं। अभी गुलजार ने एक इंटरव्यू में कहा था कि गाने किसी भी फिल्म की ऐसी कमोडिटी बन गए हैं जो त्वरित उपभोग के लिए तैयार की जाती है। उसकी गुणवत्ता की फिक्त्र किसे है? क्या यह बात किसी से छिपी है कि कई दशकों से बालीवुड की अधिकांश फिल्मों में संगीत पहले तैयार होता है, उसमें फिट करते हुए गीतों के बोल बाद में लिखे जाते हैं। यदि ऐसे गाने सफल होते हैं तो क्या उनके पीछे संगीतकार का योगदान ज्यादा बड़ा नहीं? फिर गीत तो ऐसे भी हिट हो रहे हैं जिनके बोल सुनकर सिर पीटने को जी चाहता है। पैसा-पैसा करती है क्यों पैसे पर तू मरती है. आजकल संगीत के चार्ट्स में टाप पर चल रहा है। मगर जरा इसके बोल तो देखिए! एक दो तीन चार पांच छह सात आठ नौ दस ग्यारह, बारह तेरह. के बोल क्या बहुत उत्कृष्ट हैं? लेकिन यह गाना सफल हुआ तो शायद अपने संगीत और माधुरी दीक्षित के दिलकश अंदाज के कारण। मैं चाहे ये कहूं मैं चाहे वो करूं मेरी मरजी. की सफलता के लिए क्या गीतकार को श्रेय देंगे? शायद उससे बड़ा श्रेय अभिनेता गोविंदा और संगीतकार को जाता है। पश्चिम में शकीरा से लेकर बेयोंसी तक अपने गीतों के बोल खुद लिखती हैं और कमाल देखिए कि एक गैर-पेशेवर गीतकार होने के बावजूद उनके गीत संगीत के साथ मिलकर हिट हो जाते हैं। एआर रहमान जिस फिल्म का संगीत देते हैं, उसके गाने सफल होते ही हैं, भले ही गीतकार कोई भी हो। यह अलग बात है कि अगर गीत अच्छे हैं और उन्हें रुचिकर ढंग से फिल्माया गया है तो गानों का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। अगर जावेद अख्तर और आमिर खान यह मान लें कि गाने की सफलता में किसी एक का कम या ज्यादा नहीं, बल्कि सभी का सम्मिलित योगदान है, तो यह बहस यहीं समाप्त हो जाए। ऐसा करने पर सारे विवाद हल हो जाएंगे, लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि 53 साल पुराने कापीराइट अधिनियम की जिस दरकती इमारत को दुरुस्त करने का जिम्मा उन्हें दिया गया है, उसमें अपने-अपने वर्ग के हितों की सुरक्षा करना उनकी पहली प्राथमिकता है। दूसरी तरफ आप और हम बौद्धिक संपदा अधिकारों और कापीराइट जैसे मुद्दों पर फालतू की बहस में उलझे हैं।

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